mOla
ना जाने आदमी क्यों हैवान बना मौला
इन्सान को तू फिर से इन्सान बना मौला|
छ:इंच का भरने को छ:फुट के हाथ पाए
फिर हाथ पसारे क्यों कंगाल बना मौला|
फूटी न थी इक कौड़ी इंसानियत बड़ी थी
है अरब-खरब फिर भी गुनहगार बना मौला|
अनपढ़ गंवार था पर था प्यार से लबा-लब
अब चार हरफ़ पढ़ कर शैतान बना मौला|
खूंखार भेड़िये भी ऐसे न वार करते
बे बात में ही यह तो हथियार बना मौला|
दुनिया की बगीची का जिसको बनाया माली
बहरूपिया मगर वह हकदार बना मौला|
मौला का करम सब पर रहता है "शलभ"यकसाँ
क्यों शेख-बिरहमिन का संसार बना मौला|
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